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राजस्थान में अभी पिछले दिनों एक हिंदी शिक्षक और शिक्षिका के नृत्य का एक वीडियो वायरल हुआ है । जिसे देखकर पता चलता है कि शिक्षा विभाग में कैसे स्तरहीन लोग प्रवेश पाने में सफल हो चुके हैं ? कभी इस देश में शिक्षक का विशेष सम्मान होता था। उसका कारण यही होता था कि शिक्षक अपनी मर्यादा का बहुत अधिक ध्यान रखता था । बचपन में हमने बड़े बुजुर्गों को शिक्षक के आने पर उसके लिए सिरहाना छोड़ते हुए देखा है । इसके पीछे भी यही कारण था कि शिक्षक अपने नैतिक चरित्र पर बहुत अधिक सावधान होकर ध्यान देते थे ।
शिक्षा क्षेत्र में स्तरहीन लोगों के प्रवेश पा जाने का परिणाम यह है कि समाज में मानवीय मूल्यों में अप्रत्याशित ह्रास देखा जा रहा है । उससे सुसभ्य और सुसंस्कृत लोग बहुत अधिक चिंतित हैं । माता-पिता के प्रति संतान उच्छृंखल और उद्दंड होती जा रही है । इसी प्रकार शिक्षक - शिक्षिकाओं के प्रति भी विद्यार्थियों का दृष्टिकोण बहुत अच्छा नहीं कहा जा सकता । इन सब चीजों का प्रभाव समाज के स्वास्थ्य पर भी पड़ रहा है । समाज में भी लोगों में परस्पर वैमनस्यता बढ़ती जा रही है । सहनशीलता , धैर्य , संयम जैसे गुण युवाओं में से समाप्त होते जा रहे हैं ।
जिसका परिणाम यह रहा है कि छोटी-छोटी बातों पर युवा आत्महत्या कर रहे हैं। जघन्य अपराधों में सम्मिलित हो रहे हैं । छोटी-छोटी बातों को लेकर चाकुओं से गोद - गोद कर पति द्वारा पत्नी को और पत्नी द्वारा पति को मार डालने की और संतान द्वारा माता पिता के प्रति बढ़ती जा रही उदासीनता समाचार पत्रों में नित्य प्रति हमें पढ़ने को मिल रही है। इस प्रकार की घटनाएं भारतीय समाज में बड़ी तेजी से बढ़ती जा रही हैं । अगले 20 वर्ष में इन में कितनी वृद्धि हो जाएगी और समाज कितना अस्तव्यस्त हो जाएगा ? इस पर यदि विचार करें तो बहुत भयावह तस्वीर उभर कर सामने आती है । मातृत्व को कलंकित करने वाली ऐसी घटनाएं भी देखने को मिल रही हैं , जिन्हें देखकर आत्मा कांप उठती है , जैसे युवा महिला द्वारा अपने ही बच्चों को कुएं में फेंक देना , नदी में फेंक देना , मार देना ,काट देना इत्यादि ।
वैदिक कालीन शिक्षा का मात्र यह उद्देश्य नहीं था कि मनुष्य को आजीविका के योग्य या अन्य शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने में सक्षम बना दिया जाये, अपितु आत्मा में निहित शक्तियों का विकास करना वैदिक कालीन शिक्षा पद्धति का मूल उद्देश्य था । जिसे आज के भारतीय समाज ने लॉर्ड मैकाले प्रणीत शिक्षा प्रणाली के माध्यम से बहुत पीछे छोड़ दिया है। वैदिक कालीन शिक्षा पद्धति के माध्यम से बच्चे को मानव बनाकर देवत्व की साधना में लीन किया जाता था । उसे अभ्युदय की प्राप्ति और निःश्रेयस की सिद्धि के योग्य बनाकर मुक्ति की ओर बढ़ने के लिए प्रेरित किया था । प्राचीन भारतीय शिक्षा प्रणाली का मौलिक उद्देश्य यही था ।
आज की शिक्षा प्रणाली ने मनुष्य को हृदयहीन मशीनी मानव बनाकर रख दिया है । जो रोजी-रोटी तक सीमित होकर रह गई है । रोजी रोटी की शिक्षा देने वाली यह शिक्षा प्रणाली मानव को स्वार्थी , असंयमित , अधीर , कामी , भोगी , विलासी आदि बना रही है । जिससे समाज की सारी व्यवस्था तार-तार हो कर रह गई है । तार-तार होती इस व्यवस्था के लिए ऐसे ही शिक्षक और शिक्षिकाएं उत्तरदायी हैं जैसे हमें उपरोक्त वायरल होती हुई वीडियो में दिखाई दे रहे हैं ।
शिक्षा के स्वरूप का प्रतिपादन करते हुए महर्षि कहते हैं कि वही शिक्षा है, जिससे विद्या, सभ्यता, धर्मात्मा, जितेन्द्रियतादि की वृद्धि हो और अविद्यादि दोष छूटें। महर्षि विद्या को यथार्थ का दर्शन कराने वाली और भ्रम से रहित मानते हैं। अथर्ववेद में ब्रह्मचारी को दो समिधाओं वाला बताया गया है। प्रथम समिधा 'भोग' की प्रतीक है और द्वितीय समिधा 'ज्ञान' की। ज्ञान और भोग इन दोनों समिधाओं के द्वारा अन्तरिक्ष स्थानीय हृदय की सन्तुष्टि और पूर्णता प्राप्त करना ब्रह्मचारी का उद्देश्य है। कहने का आशय यह है कि केवल भोग या केवल ज्ञान से मनुष्य जीवन सफल नहीं हो सकता। इसलिये भारतीय वैदिक शिक्षा जीवन के दोनों रूपों में सामञ्जस्य स्थापित करके मनुष्य को पूर्णता तक पहुँचाती है।
महर्षि दयानन्द सरस्वती के अनुसार जब बालक और बालिका आठ वर्ष के हों, तभी उन्हें अध्ययन करने हेतु पाठशाला में भेज देना चाहिये। इस विषय में महर्षि का स्पष्ट अभिमत है कि बालिकाओं और बालकों को पृथक्-पृथक् विद्यालय में पढ़ाना चाहिये अर्थात् महर्षि की दृष्टि में सहशिक्षा उचित नहीं है। वे यहाँ तक कहते हैं कि कन्याओं की पाठशाला में पाँच वर्ष का लड़का और पुरुषों की पाठशाला में पाँच वर्ष की लड़की का प्रवेश पूर्ण वर्जित होना चाहिये। जब तक बालक और बालिका शिक्षा प्राप्त करें, तब तक एक-दूसरे का दर्शन, स्पर्शन, एकान्त सेवन, भाषण, विषय कथा, परस्पर क्रीडा, विषय का ध्यान और सङ्ग- इन आठ प्रकार के मैथुनों से अलग रहना चाहिये। इसलिये वे सुरक्षात्मक उपाय के रूप में बालक और बालिकाओं की पाठशाला कम से कम पाँच किलोमीटर दूर रखना आवश्यक समझते हैं। इस प्रकार महर्षि ने बालक और बालिकाओं को भिन्न लिङ्ग के व्यक्ति के सम्पर्क में आने का पूर्ण निषेध किया है।
लेकिन प्राचीन(वैदिक) काल में सहशिक्षा पूर्णतया निषिद्ध थी, को पूर्णरूप से स्वीकार नहीं किया जा सकता है। भवभूति के नाटक 'मालती माधव' में नारी शिष्या कामन्दकी पुरुष शिष्य भूरिवसु एवं देवराट् के साथ एक ही गुरु से अध्ययन करती थी। महर्षि दयानन्द सरस्वती का सहशिक्षा का विरोध मनोवैज्ञानिक रूप से सर्वथा उचित है। उचित-अनुचित के विवेक से रहित युवा होते हुए बालक-बालिकाओं का परस्पर आकर्षण, समाज में विषम समस्या को जन्म दे सकता है, अतः, अध्ययन के समय पुरुष और स्त्री वर्ग को एक-दूसरे के सम्पर्क में न आने देना, वास्तव में एक युक्तिसङ्गत प्रावधान है और आज के बिगड़ते हुए परिवेश में यह और भी अधिक प्रासङ्गिक है।
परंतु जहां शिक्षक और शिक्षिकाएं स्वयं अभद्र और अशोभनीय नृत्य करते पाए जाते हों , वहां उनसे यह कैसे अपेक्षा की जा सकती है कि वह नैतिक और आध्यात्मिक रूप से परिष्कृत मानवीय समाज का निर्माण करने में योगदान देने के अपने महान दायित्व के प्रति सजग और जागरूक होंगे ? समाज की डांवाडोल होती हुई स्थिति को संभालने के लिए शिक्षक शिक्षिकाओं का अपने कर्तव्य कर्म के प्रति सजग और सावधान होना बहुत आवश्यक है यह तभी संभव है जब देश में शिक्षा को मानव के आत्मिक विकास से जोड़ा जाए । इसके लिए आवश्यक है कि शिक्षा को भारत की प्राचीन गुरुकुलीय शिक्षा प्रणाली के साथ स्थापित करने के लिए सरकार यथाशीघ्र ठोस कदम उठाए , अन्यथा हम भारत की भावी पीढ़ियों को विनाश के गर्त में जाने से बचा नहीं पाएंगे।